Here are a few poems that I had written a decade ago… I had started writing under the influence of a close friend, and Gulzar’s style. Several seem silly now or nothing more than collections of rhyming words, but at that time, it captured a phase of life. Thus, am not making any changes – and here they are, unfiltered!
बरसात
कुछ यादें मेंढक-सी होती है
सालों से छुपी हुई होगी किसी कोने में
जैसे ही थोड़ी बूंदा-बाँदी हुई, लपक कर बाहर
रेनकोट के रंगबिरंगी आकारो से
जब टकराती थी ये बूंदे
जब हम स्कूल जाते थे और आते
रुके हुए पानी में ज़ोर से साइकल चलाते
एक दूसरे को भिगाते थे
खिड़की से अंदर झाँकती और फिर
अपने आप ही हँसती थी ये बूंदे
जब बारिशमें खूब भीग कर घर आते थे
और फिर गर्म कंबल में लपेटे गर्म बदन पर
माँ से पेशानी पे बोसा लेते थे
बस स्टेशन पर बिछड़ते समय
आँखो की खराश को छुपाती थी ये बूंदे
जब पहली बार अलग हो रहा था घर से
और पापा के सामने हीरो बना खड़ा था में
पानी के पड़दे के पार दर्द रहते थे
बाइक पर दोस्तो के साथ घूमते
ताली देते दोस्ती निभाती थी ये बूंदे
जब तीन यार, एक बाइक और एक कॅमरा
काफ़ी थे ज़िंदगी को घोल के पीने के लिए
गम और फ़िक्र छोटे से स्पीड ब्रेकर्स बस थे
वो लंबी सी सड़क पर चलते चलते
एक परफेफ़्ट बॅकग्राउंड बनाती थी ये बूंदे
जब पकड़े हुए हाथ और साँसे साथ चल रही थी
और दो भीगे बदन दूर रहने की कोशिश में लगे हुए थे
कुछ बारिश भी अजीब सी होती है
बूँद बूँद से जैसे एक कहानी लिपटी हुई मिले
और हर पल महसूस हो
के अगर ये अभी नही रुकेगी तो
यादों की बाढ़ आ जाएगी
July 6, 2010
—
और फिर यूँ हुआ
और फिर यूँ हुआ
यादें तेरी कंधे पे बैठ सिर को बोसा देने लगी
और फिर यूँ हुआ
चाँद के साथ नर्म सी रात अकेली बहने लगी
फिर यूँ भी हुआ
बातें तेरी बिस्तर पर सिलवटें बन कहने लगी
बूंदे गिर रही थी बारिश की जो बाहर
खींच ले जाती थी मुझे उंगली पकड़कर
संभाली हुई समझदारी अब और कहीं रहने लगी
फिर ये जो हुआ
रात के साए में तस्वीर तेरी बनने लगी
मीठी लगती है कुछ खुजली सी यादें
जब भी उंगलियाँ छूने को दौड़ती है तुम्हें
उसी लम्हें पर जा रेत की घड़ी थमने लगी
और फिर यूँ हुआ
चाँद की खिड़की से आ कर रात मेरी गोद में सोने लगी
और फिर यूँ हुआ
विसाल की राह देखी और बाँहो मैं तेरी सुबह होने लगी
June 27, 2010
—
गुल्मोहर और अमलतास
पीली धूप में रंगी हुई
समय को थामे चलती सड़कोसे जब भी गुज़रता हूँ
आँखें एक तरफ देखती है प्यार के दो अंदाज़
एक तरफ खड़ा है गुल्मोहर
सूरज से लड़ता, लाल आँखोवाला गर्म खून
और दूसरी तरफ है अमलतास
बाँहे फैलाकर आँखे ज़ुकाती अभिसारिका
कहते है इनकी भी एक कहानी है
गुल था एक शहज़ादा
जो अम्ल को बेतहाशा इश्क़ करता था
अम्ल भी गुल को देख चमक उठती थी
हर रोज जब सिंगार कर खिड़की पर आती थी
नीचे घोड़े पे सवार गुल की धड़कनो की आहट महसूस करती थी
एक दिन पता नही क्या हुआ
जब पेड़ो, तारो और ज़माने के कानो को ये कहानी पता चली
उन्होंने दोनो को अलग कर दिया और फरमानो की बेड़ी पहना दी
गुल लड़ता रहा हँसती धूप से और अम्ल से छू कर आने वाली हवाओं से
अंग अंग लहूलुहान हो गया था और होंठ बस आख़िरी बार अम्ल का नाम ले रहे थे
अम्ल कहते है आख़िर में अपने आँसुओ की गोद में लिपटी पाई गई
उस रात एक करिश्मा हुआ और सुबह दोनो ने अपनी आँखे खोली
तो पाया के दोनो एक रास्ते के दोनो तरफ खड़े थे
हाथ एक दूसरे के और टहनी बन कर फूट रहे थे
पर पैर ज़मीन पे सटे हुए थे
गुल फिर से घायल हुआ और सारे घाव फूल बन गये
और सामने खड़ी थी अम्ल जिसके आँसू पीला गुच्छा बना रहे थे
आज भी जब गुल्मोहर प्रेम का संदेश रास्ते पार अमलतास को भेजता है
कहते है उसी दिन शहर के दरवाजे पर सावन दस्तक देता है
May 31, 2010
—
सपना
कल बस शायद ऐसा ही कुछ लम्हा था
तुम सामने थी और मैं तुम्हारे आसपास था
कुछ बवाल था अंदर कहीं
कुछ बाहर की तरफ का रास्ता ढूँढ रहा था
जो मैं टुकड़ा टुकड़ा हो तुम्हारे कंधे पे जा गिरा था
फिर जो हुआ पता नही
पर रोम रोम मैं सूरजमुखी खिलनेका एहसास था शायद
निशब्द वादा के मैं वहाँ मूड़ुँगा जहाँ तेरा रास्ता हो
बच्चे को माँ का बोसा मिलने का आनंद था शायद
तुम्हारा भरोसा के कुछ भी हो तुम सब ठीक कर दोगी
जब आँख खुली पाया
सवेरा दरवाजे पर दस्तक दे रहा है
और हाथो मैं गिर रही है पिघली हुई रात
May 21, 2010
—
ઍક અધૂરો આદમી
ઍક અધૂરો આદમી
ઘડિયાળના કાંટા જોડે બંધાયેલો
અમળાતો મરોડાતો
જીવન ના ચક્ડોળમાંથી ફેંકાતો
ને ફરી પાછો ધૂળ ખંખેરી
ઘંટીના બે પડ વચ્ચે પીસાતો આદમી
જલેબીના ગૂંચળાની મીઠાશ વચ્ચે
સીધી લીટી શોધતો
‘આવતા સ્ટેશન પર ઉતરી જઈશ’ કહી
વાસનાઓની ગાડીનો હંમેશનો પ્રવાસી
તંગ દોરી પર નટ બજાણીઓ આદમી
ક્યારેક બીજા માટે, ક્યારેક ત્રીજા માટે
સમય મળે તો પોતા માટે પાપ કરતો
બીજાઓને હથિયાર પકડાવી
અંતરને ચૂપ રહેવા ફોસલવતો
જીવવાની આદતથી મજબૂર આદમી
‘હૂઁ ઍકલો નથી’ ની સમજણથી પીડાતો
અકળાતો ધૂંધવાતો અથડાતો
ખુદ નું સરનામું ખોળવા
જાતનું ચોથિયુ લઈ બજારમાં ફરતો આદમી
લાખ બુરાઈઓ છતાં
સતત પરિશ્રમ કરતો
મૂંગા મોઢે વેતરાતો, જોતરાતો
હાથની રેખા ભૂંસતો અને બનાવતો
આંસૂ હોઠમાં દબાવી દાંત બતાવતો
કાચો પાકો
અને ઍટલે જ કદાચ ખટમધુરો આદમી
ઍક અધૂરો આદમી
May 20, 2010
—
Through the frost glass
I
standing there
naked to the soul
face to the transperant veil
rugged breathing crashing on the frost
I can see you
But i can’t touch you
your hazy form makes my blood run
it makes my suffering a fun
but unable to break free
i just cry and cry
till i feel my eyes dry
banging doesn’t bring any crash
but makes me feel helpless
you call me, through your eyes
through your body
May 17, 2010
—
हमराज़
तन्हाई की करचे जब जहनमें जा लगती है
यादो का ही खून बह निकलता है
और कतरा कतरा जा मिलता है
उस पल को जहाँ तुम मौजूद थी
एक एक लम्हें बड़ी बारीकी से देखता है
तुम्हारे साए के निशान ढूंढता है
और फिर सहेज के रख देता है ज़ोहरी की तरह
पता नही वक़्त मेरा हमराज़ क्यों बना है
May 15, 2010
—
रात
धीरे से चुपके से ख्वाबो सी बहती है रात
लट्टू सी घूमती तेरी ही कहानी कहती है रात
काँच के सपने, पत्थर की हक़ीकत
संगदिल सीने पे तेरा नाम बनाती
चुभती, डसती, घायल करती
फिर खुद से ही लड़ मरहम लगाती है रात
परछाई से लोग निकलते है आरपार
रिश्तो के तानेबाने जोड़ती, तोड़ती
तन्हाई के सीने पे यादो से टकराती
अकेली बारिश में आसपास रहती है रात
सदीयाँ हुई सीने में रहती है गर्म हवा
हररोज़ इनसे बाते करती, समज़ाती
तुम्हारा वास्ता दे कर सुलाती
और फिर खुद जग चुपचाप सहती है रात
धीरे से चुपके से ख्वाबो सी बहती है रात
ना जाने क्यों तुमको एक सपना कहती है रात
May 9, 2010
—
तस्वीरे
सुबह से चहल पहल थी घर में
शहर से मेहमान आए थे
बड़े पुरानी यादों की गलियो में चक्कर लगा रहे थे
‘अब तो ऐसा हवा-पानी कहाँ रहा है शहरो में’
‘अम्मा, बस आप के हाथो का आचार खाना है’
‘कल खेतो में घूमेंगे, गन्ने काट के घर लाएँगे’
बच्चे इस तीन मज़ला घर के चक्कर लगा रहे थे
एक घुसा रोशनदान से उस पुराने कमरे में
और एक पुरखे की तस्वीर निकाली
बड़ी अच्छी लगी वो बड़ी बड़ी सफेद मुच्छे
दूसरे भी इधर उधर देख कर अंदर घुसे
और निकली सालो पुरानी तस्वीरे
लाल साडी पहनी सुनहरी औरते
बड़ी सी पगड़ी पहने परदादा
और उनकी तरफ देखते हुए बच्चे
पूरा हुल्लड़ बाहर आया
वो तस्वीरे हाथो में ले कर
और भागे मैदान की ओर
किसी की फ्रेम टूट गई तो
किसी का शीशा हवा बन गया
दादा की रूई सी सफेद मुच्छे उड़ने लगी
औरत ने कस के अपना पल्लू पकड़ लिया
और बच्चो ने आँखे बंद कर साँस ली
तो पैरो तले का घास मिट्टी से मिल कर
नाक तक पहुँच चुका था
April 19, 2010
—
पीला सा खत
कल की ही तो बात है
तुम आई थी कॉफी शॉप में
आते ही मुझे किस किया
जब तुम्हारा मोबाइल फोन चालू था
झटपट ऑर्डर दिए, जिसके लिए
अब तुम्हे मेनू कार्ड देखने की भी ज़रूरत नही पड़ती
‘कैसा चल रहा है सब कुछ’ तुमने पूछा था
‘बस सब ठीकठाक’ मैने कहा था
फिर तो बहुत सारी बातें हुई
आइ पी एल की, सानिया की
नयी फ़िल्मो की, सोनिया की
कुछ देर बाद तुमने कहा
‘सब कुछ कैसे बदल गया है, नही?’
मैने हा में सर हिलाया
और अनायास हाथ पर्स की तरफ बढ़ गया
एक छोटे से कोने में एक पीला सा खत था
जो तुमने किसी सुनहरी सुबह मुझे दिया था
और मैं हंस पड़ा
कुछ चीज़े कभी नही बदलती
और तुमको लगा मैं पागल हो गया हूँ
April 8, 2010
—
तलाश
थोड़ी सी खराश, थोड़ी सी गहराई और कुछ पल गीले
आज इस दिल को खुरेंदा तो आँखो में सागर मिले
तलाश करने तुम्हे, उसी रस्तो ने फिर से बुलाया था
गुम गया हाथ की रेखाओ में, उंगली पे कुछ मंज़र मिले
बगीचा वो ही था शायद, पेड़ मेरा नाम भूल गये थे लेकिन
तुमने जो गुलाब बोया था कोने में, नये कुछ भंवर मिले
यादों की गलियों में मुड़ा फिर, दीवार पे तुम्हारा नाम मिला
कभी सपनो का महल हुआ करता था, खाली कुछ घर मिले
आ भी जाओ अब तुम, और ना तडपाओ इस रात में
आँखे जब भी बंद हो, गोद हो तुम्हारी और मेरा सर मिले
April 8, 2010
—
चाँद की दोस्ती
जाओ सैयाँ मैं ना बोलूं तोसे आज
कभी पूरणमासी में रोशनी की बाढ़ लाते हो
और कभी अमावस बन कर दुख़ दे जाते हो
कभी होते हो नाराज़ तो मूँह फेर लेते हो
खुशियो में तुम्ही बोसे से नहला देते हो
तुम तो रहते हो आसमान में सितारो में
यहाँ हम ढूँढते है हम तुम्हे इन्ही नज़ारो में
ऐसा मत मानो केतुम्हारे बिना सूना पड़ा है दिल का साज़
जाओ सैयाँ मैं ना बोलूं तोसे आज
पर आए हो तो सुनते जाओ
खिड़कियाँ खुली पड़ी है
चुपके से आना जब मैं सो जाउ
और मेरी पेशानी पे अपनी
चाँदनी की एक लकीर छोड़ जाना
March 30, 2010
—
આશ્રમ રોડ પર ચાલતા ચાલતા
મોટી મોટી ઈમારતો પર સંતાકૂકડી રમતા પડછાયા
ડામર ના રસ્તાને પાનનુ ચુંબન મોકલતુ પીપળાનુ વૃક્ષ
આગલી સીટ પર છાપું થઈ ગયેલો રિક્ષાવાળો
પેલી દીવાલ પર વાંદરાને જોતી ભોળી મોટી આંખો
બાંધણી પાછળથી બસ સ્ટોપ પર વાત કરતા હોઠ
અંદાજાથી મંદિરનુ આંતર માપતા પગ
ધોધમાર વરસાદની જેમ વરસતા વાહનો
સ્થિતપ્રજ્ઞ સાધુંની જેમ બધાથી અલિપ્ત ટ્રૅફિક સિગ્નલ
હૉર્ન અને ઘોંઘાટમાં ઍકાન્તની ગુફ્તગુ કરતા બાંકડા
પાણીની છોળો પર ઉડતા કબુતરો
ઈમારતોની આરપાર અનુભવાતી સાબરમતી
હાથમાં બાળક લાઇ રોડ ઓળંગતી માતા
નીકળ્યો હતો રસ્તાને ઓળખવા
લાગે છે મારું જ કશુંક હતુ જે શોધી રહ્યો હતો
બહારની દુનિયામાં
March 26, 2010
—
First meet
रास्ता पूरा मदहोशी में कटा है साकी
वो आने का वादा कर के
अपने पैरो की धूल दे गये है
पूछा था उनसे क्या यही है आगाज़-ए-इश्क़
जवाब में वो हमें
गुमनाम सा एक फूल दे गये है
March 20, 2010
—